Valmiki Jayanti 2023: अक्टूबर में इस दिन मनाई जाएगी रामायण रचनाकार वील्मीकि जी की जयंती, यहां पढ़े वाल्मीकि कैसे बने एक डाकू से रामभक्त
- By Sheena --
- Monday, 23 Oct, 2023
Valmiki Jayanti 2023 Date and Know The History How Dacoit Valmiki
Valmiki Jayanti 2023: महर्षि वाल्मीकि को हिन्दू धर्म में श्रेष्ठ गुरु माना जाता है। आपको बतादें कि सनातन धर्म में महर्षि वाल्मीकि को पहला कवि माना जाता है क्योंकि उन्होंने महान हिंदू महाकाव्य रामायण को रचा था, जिसमें भगवान राम के पूरे जीवन को वृत्तांत दिया गया है। महर्षि वाल्मीकि के माध्यम से ही श्री राम कथा रामायण के रूप में आज भी लोगों का उद्धार कर रही है। महर्षि वाल्मीकि के बारे में कहा जाता है कि वह पहले डाकू हुआ करते थे लेकिन बाद में उन्होंने राम भक्ति अपनाकर ऋषि जीवन का अनुसरण करने का निर्णय लिया।
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महर्षि वाल्मीकि के जन्मोत्सव को वाल्मीकि जयंती के रूप में मनाया जाता है और इस दिन इनकी पूजा भी होती है। हिन्दू कैलेंडर के अनुसार ,महर्षि वाल्मीकि की जयंती हर साल आश्विन माह की पूर्णिमा तिथि को मनाया जाता है। हिन्दू पंचांग एक अनुसारम इस साल साल वाल्मीकि जयंती 28 अक्टूबर को मनाई जाएगी।
कैसे पड़ा वाल्मीकि नाम ?
यूँ तो हिन्दू धर्म में ऐसी बहुत सी पौराणिक कथाएं है जिसमे वाल्मीकि जी के जीवन के बारे में बहुत सी बातें जानने को मिलती है और उन्ही में से एक मत के अनुसार बताया गया है कि एक बार महर्षि वाल्मीकि तपस्या में बैठे थे। कई दिनों तक चले इस तप में वो इतने मग्न थे उनके पूरे शरीर पर दीमक लग गई। महर्षि ने अपनी साधना पूरी करने के बाद ही आंखें खोली। फिर दीमकों को हटाया। दीमक जिस जगह अपना घर बना लेती है उसे वाल्मीकि कहते हैं, इसलिए इन्हें वाल्मीकि के नाम से जाना जाने लगा।
वाल्मीकि जी का जीवन और डाकू बनने से लेकर रामभक्त बनने की कहानी
महर्षि वाल्मीकि के जन्म को लेकर कई मत हैं जिसके अनुसार इनका यह महर्षि कश्यप के 9वें पुत्र वरुण और उनकी पत्नी चर्षणी की संतान थे। ऋषि भृगु इनके बड़े भ्राता माने जाते हैं। ब्राह्मण कुल में जन्में वाल्मीकि जी युवावस्था में डकैत बन गए थे। कहते हैं कि जन्म के बाद बाल काल में इन्हें भील समुदाय के लोग चुराकर ले गए थे। इनकी परवरिश वहीं हुई। वाल्मीकि से पहले इन्हें रत्नाकर नाम से बुलाया जाता था। रत्नाकर लूट-पाट, चोरी जैसे गलत काम करता था लेकिन एक घटना ने उनका जीवन पूरी तरह बदलकर रख दिया।
एक बार जब रत्नाकर डाकू ने जंगल में नारद मुनि को बंदी बना लिया। नारद जी बोले इन गलत कामों से तुम्हें क्या मिलेगा। रत्नाकर बोला ये काम मैं परिवार के लिए करता हूं। नारद जी ने उसे कहा कि जिसके लिए तुम गलत मार्ग पर चल रहे हो उनसे पूछो की क्या वह तुम्हारे पाप कर्म का फल भोगेंगे।नारद जी के कहे अनुसार रत्नाकर ने ऐसा ही किया लेकिन परिवार के सभी सदस्यों ने ऐसा करने से इनकार कर दिया। इस घटना से रत्नाकर बहुत दुखी हुआ और गलत मार्ग का त्याग करते हुए राम की भक्ति में डूब गया।इसके बाद ही उन्हें रामायण महाकाव्य की रचना करने की प्रेरणा मिली।
वाल्मीकि जयंती 2023 में जानें रामायण पाठ का महत्व
वाल्मीकि जयंती के दिन रामायण पाठ जरूर करना चाहिए। ऐसा इसलिए क्योंकि इस दिन रामायण का पाठ करने से वाल्मीकि ऋषि के सभी दिव्य गुण व्यक्ति में संचारित होने लगते हैं। इसके अलावा,वाल्मीकि ऋषि श्री राम और माता सीता के प्रिय और आदरणीय थे। ऐसे में इनकी पूजा करने से और वाल्मीकि जयंती के दिन रामायण का पाठ करने से श्री राम और माता सीता की विशेष कृपा मिलती है। संपूर्ण परिवार पर प्रभु श्री राम और माता सीता का आशीर्वाद बना रहता है और घर में सुख-समृद्धि, संपन्नता एवं शांति का वास होता है। वाल्मीकि जयंती के दिन रामायण का पाठ करने से व्यक्ति और उसके परिवार के सभी लोगों के जीवन से संकटों का नाश होता है। साथ ही, इस दिन रामायण का अखंड पाठ हवन के साथ करने से हनुमना जी का साथ व्यक्ति और उसके परिवार को आजीवन के लिए मिलता है।
महर्षि वाल्मीकि की पौराणिक कथा
पौराणिक कथा के मुताबिक, वनवास के दौरान भगवान राम की मुलाकात महर्षि वाल्मीकि से हुए थी। माता सीता को जब वनवास हुआ था तो महर्षि वाल्मीकि ने ही माता सीता को आश्रय दिया था। महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में ही माता-सीता ने जुड़वां बच्चों लव और कुश को जन्म दिया। महर्षि वाल्मीकि जब आश्रम में लव-कुश को शिक्षा दे रहे थे, तब ही उन्होंने रामायण ग्रंथ लिखा था, जिसमें उन्होंने 24,000 छंद (श्लोक) और सात सर्ग (कांड) लिखे थे।
थिरुवनमियूर में है महर्षि वाल्मीकि का मंदिर
चेन्नई के थिरुवनमियूर में महर्षि वाल्मीकि मंदिर 1300 साल से भी ज्यादा पुराना एक मंदिर है। इसे मारकंडेश्वर मंदिर भी कहा जाता है। इस मंदिर का निर्माण चोल शासनकाल के दौरान किया गया था। धार्मिक मान्यता है कि भगवान शिव की पूजा करने के लिए ऋषि वाल्मीकि मारकंडेश्वर मंदिर में पूजा की थी। बाद में इस जगह का नाम थिरुवाल्मिकियूर रखा गया, जो अब थिरुवनमियूर में बदल गया है।